लंबा सफर मुश्किल डगर 

पूजा सिंह, स्‍वतंत्र पत्रकार

फोटो: गिरीश शर्मा

सुबह-सुबह दफ्तर के लिए तैयार हो रही थी। नीचे हमारी घरेलू सहायिका नाश्ता तैयार कर रही थीं। आज कुछ अतिरिक्त हड़बड़ी नजर आ रही थी। वह लगातार फोन पर बात कर रही थी। मैंने सुनने की कोशिश की। उसके स्वर मे अनुरोध था, “भैया, थोड़ी देर रुक जाओ मैं आ जाती हूं।”

मैं तैयार हो चुकी थी। नीचे पहुंची तो मेरी सहायिका ने कहा, “दीदी, जाते समय मुझे घर छोड़ दोगी? मैंने लोन के लिए अप्लाई किया है, घर पर बैंक वाले आये हैं।”

उसे छोड़ते समय मैंने पूछा कि वह कितना लोन ले रही है और किसलिए ले रही है? उसने मुझे बताया कि घर की एक दीवार ढहने के कगार पर है, वह कभी भी गिर सकती है। उसी की मरम्मत के लिए वह 50 हजार रुपये का लोन ले रही है। इसके लिए उसे अगले तीन साल तक हर महीने 2 हजार रुपये की किस्त चुकानी होगी। मैंने हिसाब लगाया और मुझे लगा कि यह लोन तो बहुत महंगा था, करीब 25 फीसदी की ब्याज दर! मैंने उसे यह बात बताई। उसने कहा दीदी लेना तो पड़ेगा। अभी एक दीवार की मरम्मत कर लोन तीन महीने पहले ही समाप्त हुआ है अब दूसरी दीवार पर संकट है।

मैंने ऑफिस पहुंच कर सरकारी बैंक में काम करने वाले एक मित्र को फोन किया। उसने कहा कि असुरक्षित श्रेणी के पर्सनल लोन के लिए इतनी ब्याज दर होना मुश्किल नहीं है। उसने विस्तार से बताया कि बिना कागजात के और बिना किसी गारंटी के होने के कारण गरीब तबके के लोगों को करीब-करीब इसी दर पर लोन मिलता है।

हम आगे बातचीत करने लगे। मित्र एक संवेदनशील प्राणी हैं। उन्होंने कहा कि आप उन्हें मेरे पास भेजिये देखते हैं क्या कर सकते हैं। वह कहने लगे, “आप जानती हैं। यह वह तबका है जो कभी कर्ज डिफॉल्ट नहीं करता। हमेशा जिम्मेदारी से चुकाता है। जैसा कि आपने बताया दीवार गिरने वाली है तो ये लोग लोन भी जरूरत पड़ने पर ही लेते हैं। लेकिन हमारी व्यवस्था ऐसी है कि आपको कार खरीदने के लिए तो 9 फीसदी की दर पर लोन मिल जाएगा लेकिन इन्हें जरूरी काम के 25 फीसदी देने होंगे।”

दोस्त से बातचीत करते हुए एक बार फिर व्यवस्था से नाराजगी हुई। बड़े-बड़े उद्योगपतियों को तो बैंक केवल एक फोन कॉल पर करोड़ों रुपये का लोन दे देते हैं लेकिन एक गरीब इंसान जिसका जीवन संकट में हैं उससे बैंक 25 फीसदी की दर पर ब्याज वसूल करते हैं।

सहायिका ने बताया था कि बैंक वाले लोन पास करने के बाद भी ऐसे बात करते हैं जैसे अपनी जेब से पैसे दे रहे हैं। बार-बार डांटकर भगाया जाना तो आम बात है। सरकारी बैंक जिसका लक्ष्य जन कल्याण होना चाहिए वहां एक गरीब व्यक्ति को बार-बार अपमानित होना पड़ता है। गरिमा और समता-समानता जैसे मूल्यों की तो खैर बात करना ही बेमानी है। इन गरीब लोगों से कर्ज वसूलने में तो हमारे बैंक सारी हदें पार कर देते हैं।

वहीं अरबों का लोन लेकर सात-समंदर पार जा बैठे कथित उद्योगपतियों के कर्ज को बट्‌टे-खाते में डाल दिया जाता है, यानी यह कह दिया जाता है कि अब इसे वसूला नहीं जा सकता है। उन उद्योगपतियों को पता है कि नियमों का लाभ कैसे लेना है, उन्हें तोड़ना-मरोड़ना कैसे है।

एक ही देश में, एक ही संविधान की छाया में अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग प्रावधान हैं। यह सब सोचते हुए दफ्तर का सफर लंबा लगने लगा था।

मेरे जेहन में मेरी सहायिका थी। उसका सफर तो और भी मुश्किल था।

One thought on “लंबा सफर मुश्किल डगर 

  1. I am inspired by this beautifully crafted story, which reflects a strong sense of concern and responsibility as a community. I aspire to align my thoughts with it, Pooja.

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