तुमको सुना तो ये ख्‍याल आया…

योगेश कुमार ध्यानी, मरीन इंजीनियर और स्वतंत्र लेखक

संगीत का स्थान हिंदी सिनेमा में शुरुआत से ही महत्वपूर्ण रहा है पर सत्तर और अस्सी के दशक में हिंदी सिनेमा के संगीत में बदलाव देखा गया। ऐसे कई उदाहरण हैं जिनमें लोग फिल्म को तो भूल गये लेकिन उसके गीतों के दम पर फिल्म ने अपार सफलता हासिल की। संगीत से जुड़ी टीम की महत्ता निर्माता निर्देशक और अभिनेता-अभिनेत्री के बराबर रहा करती थी। फ़िल्मी संगीत से जुड़ी अनेक कहानियां सुनी जाती हैं। जैसे, एसडी बर्मन अपना संगीत कैसे बनाते थे या फिर ओपी नय्यर लता मंगेशकर से एक बार इतना नाराज़ हो गये कि उसके बाद उन्होंने अपने किसी भी गीत को लता से नहीं गवाया आदि। इस बात की कल्पना कर सकते हैं कि उस दौर के रफ़ी, मुकेश और किशोर दा जैसे गायकों की तिकड़ी, लता और नामी संगीतकारों का कितना बोलबाला रहा करता होगा। एक तरह से संगीत, सिनेमा इंडस्ट्री के भीतर पलने वाली एक समानांतर इंडस्ट्री थी।

पचास, साठ और सत्तर के दशक तक गानों का एक सुगठित स्वरूप सामने आता है। मुखड़े और तीन चार अंतरे वाला गीत। ज्यादातर प्रेम से जुड़े गीतों के अलावा भजन, उत्सव या वात्सल्य जैसे भाव वाले गीतों में भी यह गठन बना रहता है। बदलाव को शब्दों के चयन से हासिल किया जाता था जैसे अवधी, उर्दू या फिर कहीं शुद्ध हिंदी के शब्दों के चयन के माध्यम से। गीतों का यह स्वरूप आज तक भी प्रचलन में है। हालांकि, अब हमारे शब्द चयन में विस्तार हो चुका है जिसमें पंजाबी शब्दों का बोलबाला है। इसके अलावा अंग्रेजी, गुजराती वगैरह के शब्द भी सुनने को मिलते हैं। एक डिस्कनेक्ट यह देखने को मिलता है कि किरदार की भाषा का मिलान गीत की भाषा से होना जरूरी नहीं रह गया है। सिनेमा से जुड़ी संगीत इंडस्ट्री के उद्देश्य अब संभवतः पुरानी फिल्मों जैसे नहीं रह गये हैं।

साठ के दशक के उत्तरार्द्ध में जब सिनेमा का संगीत अपने परंपरागत स्वरूप में चल रहा था तब आरडी बर्मन द्वारा उसमें पाश्चात्य इंस्‍ट्रूमेंटस का समावेश किया गया जिससे नयी ध्वनियां जुड़ीं। इस परिवर्तन का स्वागत भी हुआ। कह सकते हैं कि संगीत कुछ आधुनिक हुआ और युवा पीढ़ी के साथ जुड़ने में कामयाब हो सका। इस सबके साथ ही पारखी संगीत निर्देशक भी अपना काम करते रहे और नये लोग भी इस पूरे दृश्य में जुड़ते रहे जैसे लक्ष्मीकांत प्यारेलाल आदि। अस्सी के दशक की शुरुआत में जब यह पूरा परिदृश्य अपने अंदर पॉप संगीत को आत्मसात कर रहा था और युवाओं को और अधिक आकर्षित करने का प्रयास कर रहा था तब हम कुछ ऐसा अनूठा कुछ पाते हैं जो प्रचलित या नये से भी बिल्कुल अलग था।

हमने ‘फिर छेड़ी रात बात फूलों की’, ‘तुमको देखा तो ये खयाल आया’, ‘सीने में जलन’ से लेकर ‘चिट्ठी आई है’ जैसे गीतों की उपस्थिति दिखती है। आज पीछे मुड़कर देखने पर इस तरह के गीत आश्चर्यचकित करते हैं। इनमें से अधिकतर गज़लें हैं या फिर उनमें ग़ज़ल गायिकी का टच है। ये गाने फिल्मी गाने के तौर पर बिल्कुल अलग खड़े नज़र आते हैं। हालांकि ग़ज़ल तो भारतीय समाज में एक लंबे समय से मौजूद रही ही होगी। गैर फिल्मी संगीत की महफिलों में उसकी लंबी उपस्थिति रही होगी। फिर भी जब सिनेमा में उसे लिया गया तो संगीत के प्रभाव ने उसे प्रचलित फिल्मी संगीत के कलेवर में ही बांध दिया (मसलन, छलके तेरी आंखों से शराब और जियादा, कभी खुद पे कभी हालात पे रोना आया…)। इसके अपवाद भी होंगे पर अचानक से ऐसा कोई गीत याद नहीं पड़ता जो फिल्मी गीत के प्रसिद्ध गायकों के इतर किसी अन्य माहिर ग़ज़ल गायक ने फिल्म के लिए गाया हो।

इन गीतों की खासियत यह थी कि इनमें पारंपरिक ग़ज़ल गायकी के आरोह-अवरोह या आलाप आदि को हटाने के अलावा ज्यादा छेड़खानी नहीं की गयी थी। इन गीतों को लेते समय निर्देशक ने इस बात में ढील बरती है कि गायक की आवाज और पर्दे के अभिनेता की आवाज में साम्य हो। वैसे ये सभी गीत जिन फिल्मों में लिए गये थे, अगर उन्हें सुनेंगे तो हम पायेंगे कि ये फिल्में व्यावसायिक सफलता के उद्देश्य से बनाई हुई फिल्मे नहीं थीं। ‘सीने में जलन’ मुजफ्फर अली की ऑफबीट फिल्म ‘गमन’ का गीत है। इसके गीतकार शहरयार की गजलों के साथ ही मुजफ्फर अली ने ‘उमराव जान’ के गाने बनाये जो अपने आप में मिसाल हैं। आशा भोसले के गाये सभी गानों में हम भले ही एक फिल्मी प्रभाव को पा लें पर तलत अजीज की गायी ग़ज़ल ‘जिंदगी जब भी तेरी बज़्म में लाती है हमें’ फिर से उन्हीं गानो की कैटेगरी में चली जाती है जिसकी बात ऊपर की गयी है।

1982 में आई ‘बाज़ार’ फिल्म भी बेहतरीन गजलों से सजी थी। लगभग सभी ग़ज़लें संभवत: पहले से लिखी हुई थीं और उन्हें खय्याम ने अपने संगीत से इस तरह सजाया था कि शब्दों के अर्थ अपने समूचे सौंदर्य के साथ व्यक्त हों। पहले से लिखे हुए गीतों से गाने बनाने के ये प्रयोग अधिक देखने को नहीं मिलते हैं। देह व्यापार जैसे विषय को छूती यह फिल्म यदि दर्शक की संवेदना को छूने में सफल होती है तो इसमें इसके गीतों का बहुत बड़ा हाथ है।

इस तरह से फिल्म संगीत को नई तरह के गीतों की सौगात देने के लिए इन फिल्म निर्माताओं की प्रशंसा की जानी चाहिए क्योंकि जैसा हम उस दौर को सोच पा रहे हैं, एक स्थापित पैटर्न से अलग जाकर नये प्रयोग करने से ही ये गीत संभव हुए। जगजीत सिंह की आवाज फारुख शेख पर ‘तुमको देखा तो ये खयाल आया’ में जंचती है। इस आवाज के प्रभाव में दीप्ति और फारुख और अधिक कोमल दिखते हैं। हालांकि, यह आवाज पूरी तरह से उस परंपरा को टक्कर नहीं दे पाती। सिनेमा के संगीत की आवाज जब मोहम्मद अजीज जितनी भारी हो गयी थी तब जगजीत का टिकना वैसे भी कहां संभव होता? फिर भी जगजीत बीच-बीच में लौटते हैं और निदा फाजली का गीत ‘होश वालों को खबर क्या’ हमें सुनने को मिलता है।

जिस दौर में इस तरह के गीत संभव हो रहे थे, वह सत्तर के आखिरी और अस्सी के आरंभिक वर्ष थे। इस समय हिंदी सिनेमा में समानांतर सिनेमा का बीज पड़ चुका था। नये फिल्मकार नया सिनेमा बना रहे थे जिसका प्रमुख उद्देश्य समाज के यथार्थ को सामने रखना था। इस उद्देश्य की प्राप्ति में फिल्मों के प्रचलित गीतों का स्वरूप सम्भवतः फिल्म की गंभीरता को कम करता था। जिन फिल्मों के विषय पूरी तरह सामाजिक शोषण और असमानता के थे, उनमें गाने रखे जाने से बचा भी गया जैसे गौतम घोष की ‘पार’ या श्याम बेनेगल की ‘निशांत’। किंतु जिन फिल्मों में सारी बात दृश्यों के जरिये नहीं कही जा सकती थी या फिर जिनमें रोष और मानसिक पीड़ा की कुछ परतें अभिनय के जरिये दर्शाने के बावजूद भी अभिव्यक्ति से छूट जाती थीं, वहां संगीत काम आता था। ‘गमन’ का गीत ‘सीने में जलन’ या ‘बाज़ार’ का गीत ‘देख लो आज हमको जी भर के’ इन्हीं छुपी पीड़ा को दर्शाने के काम आते हैं।

थोड़ा और आगे बढ़ने पर कला फिल्मों का सिलसिला कमजोर पड़ने लगा। फिल्मों के विषय भी बदलने लगे। ऐसे में हमें 1986 की ‘नाम’ फिल्म में ‘चिट्ठी आई है’ गीत मिलता है। पंकज उधास इस गीत में बतौर पंकज उधास ही मौजूद हैं। इस गीत में अंतरे 7-8 पंक्तियों के हैं जो कि गीतों की प्रचलित परंपरा से अलग है। और आगे बढ़ने पर 1989 की फिल्म ‘डैडी’ में तलत अजीज़ की आवाज में ‘आईना मुझसे मेरी पहली सी सूरत मांगे’ गीत मिलता है। इस गीत के अंतरे नज़्म की तरह हैं और तलत अजीज़ की आवाज में एक पिता का दर्द दर्शकों तक बखूबी पहुंचता है।

इसके बाद धीरे-धीरे इस तरह के ग़ज़ल नुमां गीत मिलने बंद हो गए। फिल्में समय के साथ अपने विषय और संगीत को बदलती रहती हैं। इसे संयोग भी कहा जा सकता है कि फिल्मी संगीत के पुरोधाओं के बीच हमारे पास कुछ गीत एकदम अलग आवाज़ के गैर फिल्मी अनुभव वाले भी हैं जिसमें जगजीत, तलत अजीज और पंकज उधास जैसी आवाजें प्रमुख हैं। यदि कुछ फिल्मकारों के लीक से हटकर सोचने और प्रयोग करने के जोखिम उठाने से यह संभव हुआ है तो हम उनके शुक्रगुजार हैं।


One thought on “तुमको सुना तो ये ख्‍याल आया…

  1. बहुत उम्दा लिखा है योगेश जी ने। अच्छा लगा।

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