…. गति हो तो छोटी हो जाती हैं दूरियां

पूजा सिंह, स्‍वतंत्र पत्रकार

फोटो: गिरीश शर्मा

आज 3 जून को विश्व साइकिल दिवस है। अगर यह न मान लिया जाए कि मैं किसी राजनेता की नकल कर रही हूं या उसका मजाक उड़ा रही हूं तो मैं यह कहना चाहूंगी कि ‘साइकिल से मेरा बहुत पुराना नाता है।’ विश्व साइकिल दिवस पर मैं सोचने लगी हूं कि अरसे से जीवन में लगभग अनुपस्थित हो चुकी साइकिल मेरे लिए क्या रही है? एक जरूरत, शौक, जुनून या फिर कुछ और!

हम जिस दौर में बड़े हुए उस दौर में साइकिल स्टेटस सिंबल नहीं बल्कि जरूरत हुआ करती थी। उस दौर में हर उम्र के बच्चों की अलग-अलग साइकिल आती भी हो तो वह हमें उपलब्ध नहीं थी। हमने तो अपने बड़े भाई-बहनों की साइकिलों पर ही हाथ आजमा कर साइकिल चलाना सीखा। घर में छोटी बेटी होने के कारण हमारी साइकिल सिर्फ हमारे लिए आरक्षित हो गई और यह कोई मामूली बात नहीं थी।

मुझे अपनी उस साइकिल से उतना ही प्रेम और लगाव था जितना आज अपनी बुलेट से है। मेरे पास बीएसए ट्रेलब्लेजर साइकिल थी जिसने पहली बार मुझे अहसास कराया कि अगर आपके पास गति हो तो दूरियां छोटी हो जाती हैं। पतले टायरों और एल्युमिनियम के हल्के फ्रेम वाली वह साइकिल पलक झपकते ही हवा से बातें करने लगती थी। इसी गति के चक्कर में एक बार मेरा भयानक एक्सिडेंट भी हुआ था लेकिन वह कहानी फिर कभी सही। आज तो केवल साइकिल की बात।

आज जब अपने चारों तरफ बच्चों को हेलमेट लगाए और हाथों तथा घुटनों पर ‘एलबो और नी प्रोटेक्शन’ लगाए हुए साइकिल चलाते देखती हूं या सुबह-सबेरे कॉलोनी के बुजुर्ग अपने हेलमेट लगाए हुए एक्सरसाइज की कवायद में अपनी-अपनी साइकिलों पर निकलते दिखते हैं तो मुझे अपने शहर के वे चौराहे याद आते हैं जहां सुबह आठ-नौ बजे के बीच कामगारों की भीड़ काम के लिए एकत्रित होती थी (आज भी होती होगी)। उनमें कोई मजदूर होता था तो कोई राज मिस्त्री, कोई माली तो कोई पुताई करने वाला। उनमें से ज्यादातर के पास डंडे वाली एक बड़ी साइकिल हुआ करती। उस साइकिल को देखकर उससे उनके मालिक का प्यार महसूस किया जा सकता था। साइकिल क्या होती थी? एकदम कविता होती थी। अक्सर उनकी साइकिलों के हैंडल पर कुछ फुंदने से लटके होते। पहियों के स्पाइक्स यानी तिल्लियों पर छोटी-छोटी रंगीन प्लास्टिक की गोलियां मालाओं की तरह पिरोई होतीं। उनकी सीटों को अधिकतम आरामदेह बनाने के लिए फोम की कुशन वाली वाली सीट लगाई गई होती।

आज की आधुनिक लाखों रुपए तक की कीमत वाली फोल्डेबल और जाने कौन-कौन सी विशेषताओं वाली साइकिलों को देखती हूं तो चौक चौराहों की उन साइकिलों की बहुत याद आती है और साथ ही याद आती है विटोरियो डी सिका की अत्यंत मार्मिक फिल्म ‘बाइसिकिल थीव्स’ की। फिल्म की कहानी दूसरे विश्व युद्ध के बाद के रोम शहर की है जहां रहने वाला एंतोनियो रिक्की नामक व्यक्ति व्यग्र और व्यथित है ताकि वह भी कुछ काम करके अपनी कामकाजी पत्नी का बोझ थोड़ा कम कर सके और अपने परिवार के पालन पोषण में योगदान कर सके। आखिरकार उसे पोस्टर चिपकाने का काम मिलता है लेकिन इस काम को करने के लिए एक साइकिल अनिवार्य है। उसकी पत्नी मारिया किसी तरह उसकी साइकिल का बंदोबस्त करती है लेकिन वह पहले ही दिन चोरी हो जाती है। वह पुलिस के पास जाता है लेकिन वह भी हाथ खड़े कर देती है। तब वह लोगों के कहने पर अपनी साइकिल तलाशने चोर बाजार जाता है जहां अक्सर चुराई हुई चीजें बेची जाती हैं। अपनी साइकिल को तलाश पाने में नाकाम और हताश एंतोनियो आखिरकार एक स्टेडियम के बाहर से साइकिल चुराता है और जल्दी ही पकड़ा जाता है। उसका बेटा यह सब देख रहा होता है और उसके बेटे के आंसू देखकर साइकिल का मालिक एंतोनियो को छोड़ देता है। आंसुओं से घिरे पिता-पुत्र अपने घर की ओर लौटते हैं जहां बेटा दृढ़ता से अपने पिता के हाथ थामे होता है।

एंतोनियो और उसके बेटे का अपनी साइकिल की तलाश में जगह-जगह भटकना, उनकी आंखों से झांकती बेचैनी और हताशा तथा स्टेडियम के बाहर से साइकिल चोरी करने के क्रम में एक आम आदमी के विवशता में चोर बन जाने की कवायद को फिल्मकार और अभिनेताओं ने एक नई ऊंचाई पर पहुंचाया है और ये दृश्य लगभग एक अच्छी कविता की तरह प्रतीत होते हैं।

फिल्म ‘बाइसिकिल थीव्स’ फिल्म 1948 में आई थी। आज से 74 साल पहले बनी यह फिल्म आधुनिक जीवन की क्रूरताओं को साइकिल चोरी के बहाने हमारे सामने रखती है और यह बताती है कि व्यवस्था में इतनी ताकत है कि वह हममें से हर एक व्यक्ति को चोर बनने पर विवश कर सकती है। इस फिल्म का नाम इसलिए याद आया क्योंकि यह साइकिल चोरी के रूपक के सहारे आधुनिक समाज की विडंबनाओं को हमारे सामने रखती है।

आज जब लकदक और महंगी साइकिलों पर लोगों को तफरीह करते हुए देखती हूं या एक्सरसाइज के लिए इस्तेमाल होने वाली अपनी साइकिल पर नजर डालती हूं तो मुझे वो मेहनतकश लोग याद आते हैं जिनके लिए साइकिल आज भी एक जरूरत है। जो अपनी इन्हीं साइकिलों पर मीलों का सफर करके रोज गांवों से शहर आते हैं ताकि दिहाड़ी पर कुछ काम कर सकें। उन्हें विश्व साइकिल दिवस के बारे में कुछ नहीं पता। वे यह भी नहीं जानते होंगे कि साइकिल चलाने से स्वास्थ्य को क्या फायदे होते हैं। उनके लिए तो उनकी साइकिल उनकी साथी है, जिसे वे रोज सुबह अपने हाथों से साफ करते हैं और कभी जाने-पहचाने तो कभी अनजाने रास्तों पर काम की तलाश में निकल जाते हैं।

भले ही अब साइकिल वह पुरानी साइकिल नहीं रही जो केवल आवागमन का साधन हुआ करती थी। भले ही इंसानों की तरह साइकिल का भी ‘क्लास’ में वर्गीकरण हो गया है और उसकी कीमत कुछ हजार से कुछ लाख रुपये तक पहुंच गई है, उनमें बजने वाली पारंपरिक घंटियों की जगह ‘इलेक्ट्रिक ट्रीं-ट्रीं’ ने ले ली है लेकिन आखिर में उनका नाम अभी भी साइकिल ही है। साइकिल उन कुछ चीजों में शामिल है जिन्हें इस दुनिया में हो सके तो न्यूनतम बदलावों के साथ अपने पुराने रूप में बचे रहना चाहिए। साइकिल ही तो है जो इसे रोबोटिक युग में भी हमें बताती है कि इंसानी ताकत और मशीन की थोड़ी सी क्षमताओं का मिलन अविस्मरणीय नतीजे दे सकता है।


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