अंतिम लीला: खिल उठेगी उम्मीद की दुनिया फिर एक दिन

शैरिल शर्मा, साहित्‍य अध्‍येता

इस जीवन में रक्त से इतर संबंधों का जो भी आधार रहा उन सबके मूल में अक्षरब्रह्म की अहम् भूमिका रही है। इससे बहुत कुछ पाया और जो कुछ कभी आध खोना पड़ा उससे सीखा भी। खैर! कुल मिला कर शाब्दिक धुरी पर घूमता रहा है जीवन। हाल में इस आभासी पटल पर आते ही कुछ अमलतास मेरी अंजुरी में आ गिरे और कुछ को मैंने स्मृति के आधार पर चुना।

प्रिय अग्रज एवं मित्र यूरी बोत्वींकिन से मेरा परिचय उनकी रचना के माध्यम से ही हुआ जैसाकि मैंने कहा, शब्दनिष्ठों के लिए रचनाएं ही परिचय का प्रथमाधार भर हैं। यूरी यूक्रेन से हैं और उक्रेनी भाषा में कविताएं करते हैं। साथ ही भारतीय भाषा हिंदी के बड़े सुलझे एवं सरल ज्ञाता हैं। इतना ही नहीं मध्यकालीन भक्ति आंदोलन पर भी यूरी की गहन पैठ है और भारतीय दर्शन की गहरी समझ भी। हमें इनकी विद्वत्ता इनके अप्रकाशित नाटक ‘अंतिम लीला’ को पढ़ते हुए दिखाई पड़ती है। दरअसल, आजकल ‘जानकी पुल’ पर यूरी कृत लघु नाटक ‘अंतिम लीला’ की किश्ते आ रही हैं।

दो-तीन दिन पहले ही यूरी ने मुझसे कहा, वह चाहते हैं मैं ‘अंतिम लीला’ पूरा पढूं। अध्ययन यूं भी हमारी बहुत सी समस्याओं का समाधान भर है। सो कल ‘अंतिम लीला’ पढ़ा। भूमिका के शुरू में ही मेरी दृष्टि एक शब्द पर पड़ी ‘स्लाविक सनातनी परंपरा’ जो पाठक के मुखमंडल पर एक झीनी मुस्कुराहट का द्योतक है।

इसी शब्द से दैदिप्यमान है नाटक में स्लाविक लोक सांस्कृतिक चेतना का पुट। पांच भागों में विभक्त यह नाटक वैदिक सनातन संस्कृति एवं स्लाविक सनातन संस्कृति को एक साथ लेकर चलते हुए, एक साम्य बैठाता हुए, अंत में भारतीय संस्कृति पर केंद्रित हो जाता है। दृश्य शुरू ही पेड़ों से घिरे एक पवित्र उपवन‌ से होता है जो स्लाविक जनजाति का पूजनीय स्थल है। स्लाविक जनजाति की महिलाएं हाथ में दीप लिए प्रविष्ट होती है और अग्नि को प्रणाम करती हैं। नाटक के मध्य में जल में पुष्प एवं मोमबत्ती प्रवाहित करने का भी जिक्र है जो कि भारतीय सांस्कृतिक प्रणाली में दीपदान से मेल खाती है। यहां यह स्पष्ट है कि लेखक मूलतः वैदिक संस्कृति से प्रेरित हो स्लाविक लोक का एक खाका खींचने का प्रयास करते हैं। नाटक में हमारे ‘निकुंज नायक श्री कृष्ण’ एवं कृष्ण जैसे ही स्लाविक लोक देवता जिन्हें स्लाविक लोग प्रेम देव भी कहते ‘लेल’ की मैत्री का दृश्य है।

लेल की प्रामाणिकता सिद्ध करना यहां लेखन का विषय नहीं है। नाटक में लेल कृष्ण से काफी छोटे हैं किंतु रंग रूप एवं भाव भंगिमाओं में बिल्कुल कृष्ण का प्रतिबिंब। वेणुधारी, वनचारी, वनमाली ‘लेल’। कृष्ण के प्रति गोपांगनाओं के प्रेम की भांति लेल के प्रति स्लाविक नायिकाओं का भी प्रेम है। लेल चरवाहे हैं, सुंदर वर्ण के धनी हैं, नटखट हैं और प्रकृति प्रेमी भी हैं। लेल शब्द की उत्पत्ति कुछ स्लाविक विद्वान संस्कृत शब्द ‘लीला’ से मानते हैं। नाटक में लेल और कृष्ण के अलावा तीन स्लाविक जनजाति की महिलाएं हैं रुसावा, ज़्लाता, होर्दाना।

रुसावा अग्नि को प्रणाम कर कुछ देर मौन हो उस प्रकाश के आगे बैठी रहती है। शेष दो पुनः आकर रुसावा के लिए प्रसन्न होती हैं और कृष्ण की रूपमाधुरी पर संवाद करती हैं। बातों-बातों में रुसावा कहती हैं -“रुसावा (गंभीर होकर) – उसकी मगन कर देनेवाले नैनों से मस्ती तथा संगीतमय ध्यान की झलकें बरस रही हैं… किंतु उन्हीं नैनों में किसी दु:ख की गंभीर छाया भी दिखी मुझे… इस लंबी यात्रा का कोई गहरा-सा कारण होगा।”

“मुरली की धुन सुनाई देती है।”

आगे चलते हुए लेल और कृष्ण के संवाद है‌‌ (कृष्ण स्लाविक लोक में कुछ दिन के लिए आए हैं) नाटक की भाषा आम बोलचाल की सामान्य भाषा है। जिससे एक सहज तारतम्य स्थापित हो जाता है।

कृष्ण लेल से- ‘संसार का अंत… प्रलय… सर्वनाश… यह सब तो होना ही है, क्या करें… अब मानव-इतिहास पढ़ाया जाएगा बस युद्धों के आधार पर, न कि महात्माओं की सीखों के… जैसे किसी की जीवनी लिखी जाए उसके स्वयं व दूसरों से झगड़ों के क्रम से, न कि उपलब्धियों, शुभ अवसरों के… कभी कभी समझ में नहीं आता कि दोनों में से किसके बढ़ते जाने से अधिक होता है दुख, क्रूरता के या फिर मूर्खता के… संभवतः ये बस दो पहलू हैं ‘पुरुष’ नाम के इस खोटे होते जा रहे सिक्के के… पर ऐसा क्योंकि लालच, स्वार्थ, हिंसा जन्मने लगे हैं उस पुरुष के अंदर जो प्रकृति- सी पवित्र स्त्री का जीवन-साथी होता है? क्या मां, बहन, पत्नी का प्रेम पर्याप्त नहीं है कि पुरुषों का मानसिक पतन संभव ही न रहे?… गलत मत समझना मुझे, लेल।’

लेल और कृष्ण के संवाद से दैवियता में निहित पीड़ा को सीधा संप्रेषित किया गया है। कृष्ण अपना दु:ख लेल को बताते हैं।
इन संवादो में भारतीय वांग्मय की सीधी झलक है। जैसे महाभारत का युद्ध, रूक्मिणी हरण, गीता उपदेश, कृष्ण और द्रोपदी इत्यादि। आगे एक बड़ा रोचक किरदार है प्रिलेस्ता जिसे डायन कहकर संबोधित किया गया है जो लेल के माध्यम से (दक्षिण के बढ़ते प्रभाव के कारण) स्लाविक लोक चेतना का अस्ताचलगामी होते भविष्य के विषय में वर्णन करती है और कृष्ण का भी भविष्य बताती है कि भारत भी इससे अछूता न रहेगा, आदि। अंतिम दृश्य में कृष्ण भारत आ चुके हैं। साथ ही पाठक का परिचय एक नवीन पात्र से होता है जिसका नाम (काली एवं लक्ष्मी का रूप) शक्ति देवी है।

कृष्ण और शक्ति विभिन्न विषयों पर संवाद स्थापित करते हैं, जैसे शिव का अर्धनारीश्वर होना, देवकी, कृष्ण जन्म, यशोदा, ब्रज गोपांगनाएं, प्रेम, त्याग इत्यादि।

उदाहरण देखिए। “दु:ख जितना अधिक वैश्विक होता जाता है उतना हल्का हो जाता है।” “जब प्रेम बंधन‌ न होकर एक चेतनावस्था बनती है तो ध्यान तपस्या में प्राप्त किए प्रबोधन से कम नहीं।”

तत्कालीन युक्रेन की परिस्थितियों पर ध्यान दें तो नाटक में मौजूदा संवाद योजना एवं कोमल चेतना प्रमाण है कि चारों ओर तम के बादल होने पर भी अगर भीतर रौशनाई है तो तिमिर हावी न होगा। सध जाएगा काल चक्र, बचे रह जाएंगे हथेलियों पर कुछ फूल और खिल उठेगी उम्मीद की दुनिया फिर एक दिन।

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