सिद्धांत रूप में बेहतर मार्क्सवाद आखिर है क्‍या?

नीरेंद्र नागर, वरिष्ठ पत्रकार, नवभारत टाइम्स ऑनलाइन के पूर्व संपादक और भाषाविद्

स्कूल के दिनों की बात है यह। तब मैं दसवीं में था। सिविक्स की क्लास में राजनीतिक सिद्धांतों के बारे में बात हो रही थी जब हमारे टीचर ने कहा – सिद्धांत के तौर पर साम्यवाद सबसे पवित्र सिद्धांत है। उसके क़रीब पंद्रह सालों बाद यही बात मैंने फिर सुनी। इस बार दफ़्तर में अपने सीनियर से जिनके अधीन मैं काम करता था – सिद्धांत के तौर पर मार्क्सवाद से बेहतर कोई सिद्धांत नहीं हो सकता।

इन दोनों में से कोई भी सज्जन मार्क्सवादी नहीं थे और दोनों की बातों में ‘सिद्धांत के तौर पर’ की शर्त लगी हुई थी। इसका मतलब सिद्धांत के तौर पर वे मार्क्सवाद से प्रभावित थे लेकिन उसके व्यावहारिक रूप से सहमत नहीं थे। आइए, आज कार्ल मार्क्स के जन्मदिन (5 मई 1818) पर आसान भाषा में समझते हैं कि यह मार्क्सवाद का सिद्धांत क्या है।

मार्क्सवाद केवल एक राजनीतिक या आर्थिक सिद्धांत नहीं है। यह एक दार्शनिक सिद्धांत भी है और उसी से उसके राजनीतिक और आर्थिक सिद्धांत भी निकलते हैं। तो पहले दर्शन यानी फिलॉसफी की बात।

मार्क्सवाद एक नास्तिक दर्शन है यानी वह ईश्वर और आत्मा के अस्तित्व को नहीं मानता। उसके अनुसार पदार्थ (मैटर) ही प्रधान है और उसी से जीवन उत्पन्न और प्रभावित होता है। यहां तक कि हम जो सोचते हैं, जिस प्रकार से सोचते हैं, उसका आधार भी भौतिक पदार्थ (हमारा भौतिक जीवन) ही है। मार्क्सवाद कहता है कि पदार्थ से चेतना का जन्म होता है और संघर्ष से चेतना का विकास होता है।

लेकिन यह संघर्ष केवल प्रकृति और मानव के बीच नहीं होता। यह संघर्ष समाज के विभिन्न तबक़ो में भी होता है। जो तबका ताकतवर है और जो तबका कमजोर है, उसके बीच हमेशा से संघर्ष चलता आया है। समय के साथ धीरे-धीरे स्थितियां बदलती हैं, ताकत का आधार भी बदलता है। कभी ज्ञान और हथियार ताकत का परिचायक थे, आज पूंजी ताकत का पर्याय है। मार्क्स के अनुसार एक तरफ वे लोग हैं जिनके पास पैसा है, उत्पादन के साधन हैं। दूसरी तरफ गरीब श्रमजीवी हैं – जिनके पास अपने श्रम के अलावा कोई संपत्ति नहीं है।

चूंकि मार्क्सवाद नास्तिक दर्शन है इसलिए वह हिंदू धर्म के कर्मफल का सिद्धांत नहीं मानता कि हमें इस जीवन में जो दु:ख-सुख मिलते हैं, वे हमारे पिछले जन्म के कर्मों का परिणाम है। न ही वह ईसाई और इस्लाम धर्मों की तरह इस बात में यकीन रखता है इस जीवन में भले ही किसी मजलूम को न्याय न मिला हो, उसे मरने के बाद अल्लाह या ईश्वर के दरबार में अवश्य न्याय मिलेगा। मार्क्सवाद इसी जन्म में, इसी दुनिया में मजलूमों, गरीबों, मेहनतकशों को न्याय दिलाने की बात करता है।

कोई भी धर्म यह नहीं कहता कि अमीर बुरे हैं या अमीरी बुरी है या अमीर लोग ग़रीबों को लूटकर अमीर हुए हैं। लेकिन मार्क्सवाद यही कहता है। वह कहता है कि मेहनतकशों को उनके काम की न्यूनतम क़ीमत देकर और उनके द्वारा बनाए गए माल को बाजार में अच्छे दामों में बेचकर ही अमीर अपनी दौलत को बढ़ाता है। वह इसे चोरी और लूट कहता है – मेहनतकशों के श्रम से होने वाली कमाई की लूट। किस आधार पर, यह हम नीचे समझते हैं।

मान लिया, एक व्यक्ति खिलौना बनाता है। एक दूसरा व्यक्ति उससे वह खिलौना 5 रुपए की दर पर खरीदता है और बाजार में 50 रुपए में बेचता है। बाजार में उस खिलौने की क्या कीमत हुई – 50 रुपए? खिलौने बनाने वाले को क्या मिला? 5 रुपए। यानी मेहनत करने वाले को मिले 5 रुपए। व्यापारी को मिले 45 रुपए। ये 45 रुपए खिलौने वाले के श्रम की वह क़ीमत है जो उसे नहीं मिली। यह वह राशि है जो खिलौना ख़रीदने वाले ने प्रॉफ़िट के नाम पर अपनी जेब में रख ली।

इस 45 रुपए की रकम को जिसे पूंजीवादी दुनिया प्रॉफिट कहती है, मार्क्सवाद सरप्लस वैल्यू (Surplus Value) बताता है।

किसी माल की बाजार में जो कीमत है और माल बनाने वाले को जो रकम दी जाती है, उन दोनों में अंतर को ही सरप्लस वैल्यू कहा जाता है। यह वह रकम है जो उसको बनाने वाले को मिलनी चाहिए थी मगर नहीं मिली। मार्क्स का कहना है कि सरप्लस वैल्यू की इस लूट को प्रॉफि‍ट का नाम देकर व्यापारी अपनी पूंजी बढ़ाते हैं, उस पूंजी से नया उद्योग शुरू करते हैं और वहां भी इसी तरह लूटतंत्र चलता रहता है और उनकी पूंजी और संपदा में इजाफा होता रहता है। मार्क्सवादी शायर साहिर लुधियानवी ने इसी भाव को अपने लोकप्रिय गाने ‘ऐ दिल है मुश्किल जीना यहां’ में इन शब्दों में लिखा है – खुद काटें गले सबके, कहें इसको बिजनस।

मार्क्स के सामने यह सवाल था कि इस लूटतंत्र को कैसे रोका जाए? उनका मत था कि अगर मेहनतकश और बाजार के बीच से व्यापारी यानी पूंजीपति हट जाए जो लूटतंत्र समाप्त हो जाएगा। सो उन्होंने सुझाया कि एक ऐसा राजनीतिक अर्थतंत्र (Political Economic System) स्थापित किया जाए जहां राज्य (State) ही हर चीज का मालिक हो और जनता सार्वजनिक हित के लिए मिलजुल कर काम करे। इसके बदले में राज्य जनता के हितों का पूरा-पूरा ख़्याल रखे। मार्क्स के अनुसार जब व्यापारी हट जाएगा तो लोगों को अपने काम की पूरी कीमत अपने-आप मिलने लगेगी – कुछ वेतन के रूप में, कुछ सरकार द्वारा उसको दी जाने वाली निःशुल्क सुविधाओं के रूप में। तब सभी लोग बराबर होंगे। न कोई छोटा, न कोई बड़ा। न कोई अमीर, न कोई गरीब।

लेकिन इस साम्यवादी अवस्था (Communism) तक पहुंचना उतना आसान नहीं है। सदियों से व्यक्तिगत पूंजी के आदी हो चुके लोग अकस्मात इसे छोड़ने को तैयार नहीं होते। इसलिए इससे पहले की एक अवस्था की कल्पना की गई जिसमें उत्पादन के साधनों पर सार्वजनिक नियंत्रण के बावजूद व्यक्तिगत पूंजी की इजाजत रहेगी और वर्गीय अंतर भी रहेगा। इस अवस्था को कहते हैं समाजवाद (Socialsim)।

लेकिन यह समाजवाद आएगा कैसे? जो पूंजीपति अपनी अकूत धन-संपदा के बल पर इतने ताकतवर हो चुके हैं कि देश और समाज के सारे नियम-कायदे उनके अपने पक्ष में बनते हैं, अपने धनबल पर जिन्होंने सत्ता में बैठे हुए लोगों को अपने अनुकूल करके रखा है, क्या वे ऐसा कोई शासन आने देंगे जो उनके हाथ से पैसे कमाने की चाबी छीन ले? स्वाभाविक है, नहीं आने देंगे।
इसीलिए मार्क्स ने एक राजनीतिक पार्टी की जरूरत महसूस की जो मेहनतकशों के बीच काम करे, उनको संगठित करे और उन्हीं मेहनतकशों की ताकत के बल पर एक दिन राज्य का शासन अपने हाथों में ले ले। इस पार्टी का नाम उन्होंने रखा – कम्‍युनिस्‍ट पार्टी और 1848 में इसका मैनिफेस्टो भी जारी किया।

मार्क्सवाद का अंतिम लक्ष्य एक ऐसा समाज है जहां हर व्यक्ति की बराबर इज्‍जत हो। न कोई बड़ा हो, न कोई छोटा हो। इंजीनियर हो या श्रमिक – सब एक ही स्तर का जीवन जियें। एक ही जैसा खाना खाएं। एक तरह का वर्गहीन समाज। जहां हर व्यक्ति अपनी क्षमता के अनुसार काम करे और अपनी जरूरत के हिसाब से पाए। यानी देश और समाज एक परिवार बन जाए और हर कोई एक-दूसरे के बारे में उसी तरह सोचे जैसे कि किसी परिवार में सोचा जाता है।

किसी भी सामान्य परिवार में हर किसी का अपना रोल होता है, कोई पढ़ता है, कोई खाना बनाता है, कोई कमाता है, कोई उम्र के अंतिम पड़ाव में होने के कारण कुछ नहीं करता। लेकिन सबको उसकी जरूरत के हिसाब से मिलता है। मार्क्स भी ऐसे ही समाज की कल्पना करते हैं जो परिवार की तरह रहे। लेकिन क्या यह संभव है? क्योंकि परिवार भी जब बड़े हो जाते हैं तो वहां दस झगड़े शुरू हो जाते हैं। फिर करोड़ों लोगों को एक परिवार के सूत्र में कैसे बांधा जा सकता है?

इसका जवाब यह है कि सारे झगड़े भविष्य की अनिश्चितता और निजी संपत्ति बनाने और बढ़ाने की जद्दोजहद के चलते होते हैं। जिस समाज में भविष्य को लेकर कोई अनिश्चितता ही न हो और निजी संपत्ति की आवश्यकता ही न हो, वहां क्यों होंगे झगड़े?

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