बुद्ध: इशारा करने वाली ऊंगली को चांद न समझ लेना

चैतन्‍य नागर, स्‍वतंत्र पत्रकार

बुद्ध की तीसरी देशना का उल्लेख अंग्रेजी कवि टीएस इलियट ‘द वेस्ट लैंड’ में करते हैं। पाली भाषा में इस प्रवचन को ‘आदित्त परियाय सुत्त’ और अंग्रेजी में ‘द फायर सर्मन’ के नाम से जाना जाता है। बुद्ध इस देशना में धरती के जलने की बात करते हैं। वह कहते हैं: “भिक्खुओं, सब कुछ जल रहा है। आंखें जल रही हैं, चेतना जल रही है, जिसका स्पर्श चेतना कर रही है, वह भी जल रहा है… और यह सब कैसे जल रहा है? यह सब कुछ जल रहा है वासना की आग में, नफरत की आग में, भ्रम की अग्नि में…जन्म, मृत्यु, रोग और दुःख से, हताशा से जल रहा है।”

आज अपने चारों ओर देखें तो स्थितियां भिन्न प्रतीत नहीं होती। बल्कि यह कहा जाए कि अग्नि अब ज्यादा प्रचंड रूप ले चुकी है तो कोई अतिशयोक्ति न होगी।

अंतर्दृष्टियों की प्रतिध्वनि आज भी

लगभग 2600 वर्ष पूर्व राजकुमार सिद्धार्थ गौतम ने जीवन का अर्थ ढूंढने के लिए जो यात्रा शुरू की, उस यात्रा के दौरान जिन अनुभवों से गुजरे, जिन सच्चाइयों का साक्षात्कार किया और जिन अंतर्दृष्टियों को साझा किया, उनकी प्रतिध्वनि आज भी स्पष्ट सुनाई देती है। बुद्ध ने किसी विशेष रूप से पीड़ित, दुःख ग्रस्त समाज और व्यक्ति के साथ संवाद नहीं किया बल्कि पूरी मानव जाति को संबोधित किया। जब बुद्ध ने लोगों के समक्ष अपने चार आर्य सत्य रखे, तब पूरी मानवता का दुःख, उसका कारण, उस दुःख को खत्म करने की फिक्र और उसके उपाय की खोज उन्हें विचलित कर रहे थे। हिंसा की समाप्ति और मानव चेतना में करुणा के आगमन की बात करते समय भी उनके मन-मस्तिष्क में समूची मानवता ही है। इसलिए यह प्रश्न अपने आप में ही दुर्बल और अतार्किक लगता है कि गौतम बुद्ध की शिक्षाओं की आज के समय में कोई प्रासंगिकता है या नहीं। प्रश्न बस यही है कि बुद्ध की शिक्षाओं को समझने में किस तरह की स्वनिर्मित बाधाओं का हम सामना कर रहे हैं। और अपने बुद्ध को भूलने की कीमत हम चुका भी रहे हैं।

बुद्ध के जन्म के बाद असित नाम का एक वृद्ध सन्यासी शुद्धोधन के दरबार में पहुंचा और शिशु सिद्धार्थ गौतम को देख कर पहले हँसा और फिर रोने लगा। जब राजा ने इसका कारण पूछा तो उसने बहुत भावुक होकर कहा:“ मैं हँसा इसलिए क्योंकि यह बच्चा बड़ा होकर सम्यक सम्बुद्ध होगा और रोया इसलिए क्योंकि जब यह अपनी देशना देगा, मैं जीवित नहीं रहूंगा!”
हमारी त्रासदी यह है कि इस देश में बुद्ध हुए, अपनी बातें कहीं, और हम उन्हें सुन भी नहीं पा रहे। ज्यादा से ज्यादा अपने राजनीतिक चातुर्य और दांव पेच में उन्हें लपेटे ले रहे हैं।

शिक्षाओं की करुणा

स्पष्ट है कि हमारा वर्तमान सामाजिक ढांचा, आर्थिक, भौतिक समृद्धि पर हमारा अनावश्यक जोर, सफलता की अंधाधुंध उपासना और जीवन के प्रति हमारा इस्तेमालवादी रवैया हमे रोकता है बुद्ध की शिक्षाओं की करुणा और विराटता के स्पर्श में आने से। हमारी शिक्षा पद्धति और संस्कार जाने अनजाने उन देशनाओं के विपरीत खड़े हो जाते हैं। ऐसे में बुद्ध हमारे लिए परम श्रद्धेय और पूजनीय तो रहते हैं, पर उनकी शिक्षाओं को जीने के लिए हम तैयार नहीं हो पाते। एक और वजह यह है कि एक समाज और मानव प्रजाति के रूप में हम सतही चीज़ों में ज्यादा रूचि लेने लगे हैं और जीवन के गंभीर प्रश्न पूछने से आम तौर पर कतराते हैं।

यदि बुद्ध की शिक्षाओं को उनके सर्वोच्च अर्थ में देखा जाए तो वे सजगता की शिक्षाएं हैं। बुद्ध के व्यक्तित्व और उनकी स्पष्टता से अचंभित एक ब्राह्मण युवक ने जब उनसे पूछा: “आप मनुष्य हैं या देवता”, तो बुद्ध ने बड़ी सरलता से इसके उत्तर में कहा, “मैं तो बस सजग हूं।” जब उस युवक ने सजगता का अर्थ जानने की कोशिश की तो बुद्ध ने बताया, “मैं जब चलता हूं तो बस चलता हूं; बैठता हूं तो बस बैठता हूं; पर इधर उधर हिलता डुलता नहीं।” इससे आगे उन्होंने कहा, “जब मैं अपनी दाहिनी ओर देखता हूं तो पूरे होश में कि मैं अपनी दाहिनी ओर देख रहा हूं; जब मैं अपनी बायीं ओर देखता हूं तो पूरे होश के साथ कि मैं अपनी बायीं ओर देख रहा हूं।”

बौद्ध धर्म के एक व्यवहारिक अभ्यास के रूप में विपश्यना की बड़ी लोकप्रियता रही है। विपश्यना, या विपश्चना की उत्पत्ति बुद्ध के इसी वक्तव्य में हुई बताई जाती है। इसका मूल अर्थ है गहराई से, गौर से, पूरे अवधान के साथ देखना। विपश्यना हमें अपनी दैहिक और मानसिक हलचल को गौर से देखना सिखाती है।

बुद्ध और बद्ध

बौद्ध धर्म के साथ सामान्य परिचय होते ही आपका सामना ‘बुद्ध’ और ‘निर्वाण’ (पाली: निब्बान) जैसे शब्दों से होता है। बुद्ध का अर्थ है बोधि प्राप्त व्यक्ति। और बोधि प्राप्त वह है जो निर्वाण को प्राप्त हुआ है। निर्वाण शब्द कभी कभी मोक्ष के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है। बुद्ध ने निर्वाण शब्द की बड़ी सरल परिभाषा दी थी और कहा था: निर्वाण का अर्थ है ‘ दुःख ध्वंस’। यानी जिस व्यक्ति ने दुःख का नाश कर दिया, उसे निर्वाणप्राप्त या जीवनमुक्त व्यक्ति कहा जा सकता है। जिस जीवन का सबसे पहला आर्य सत्य दुःख हो, उसमें दुःख ध्वंस अपने आप में ही एक विराट चुनौती है और इसी चुनौती का सामना करने के लिए बुद्ध अपने महल से, एक बुर्जुआ और सामान्य जीवन छोड़ कर बाहर निकले थे। उस जीवन में धन था पर समृद्धि नहीं थी, सत्ता थी पर शांति नहीं थी। मोह और लगाव था पर प्रेम नहीं था। बौद्ध ग्रंथ बताते हैं कि बुद्ध निर्वाण के पश्चात मौन में चले गए थे।

उन्होंने यह कह कर बोलने से इनकार कर दिया था कि वह अपने अनुभवों को व्यक्त नहीं कर पाएंगे। लोगों के हठी आग्रह के बाद उन्होंने सहमति जताई और उनका प्रारंभिक वक्तव्य ही बड़ा अद्भुत था। उन्होंने कहा, “मेरी सबसे अद्भुत खोज यह रही है कि हर इंसान निर्वाण को प्राप्त हो सकता है।” इसका तात्पर्य यही समझ में आता है कि बुद्ध ने खुद को आम इंसान से अलग किसी अनूठे और महान गुरु के रूप में स्थापित करने का प्रयास नहीं किया बल्कि यही कहा कि जो कुछ उन्होंने समझा है, वह हर इंसान की पहुंच के अंदर ही है। दुःख का कारण ढूंढ कर उसे समाप्त करने वाले न ही वह पहले व्यक्ति हैं, और न ही अंतिम, इसे उन्होंने बार बार स्पष्ट किया। इस तरह बौद्ध धर्म एक ऐसा धर्म है जिसने एक व्यक्ति की सत्ता को कभी स्थापित नहीं किया और न ही उसकी पूजा और तरह तरह के कर्मकांडों की बात की।

बुद्ध ने बार-बार कहा, “मैं जो कहता हूं, उसे सिर्फ इसलिए स्वीकार न करें क्योंकि मैं ऐसा कह रहा हूं। जिस तरह एक सुनार सोने की शुद्धता की जांच करता है, उसे घिसता है, उसे परखता है, उसे जांचता है, ठीक उसी तरह मेरी शिक्षाओं की जांच की जानी चाहिए और इसके बाद ही उन्हें अपनाना चाहिए।” बुद्ध ने तर्क और व्यक्ति के भीतर पहले से बसी प्रज्ञा को विकसित करने पर जोर दिया। स्थापित धर्मों की व्याख्याओं और उनकी रुढियों पर उन्होंने कठोरता के साथ प्रश्न उठाए और इस तरह उन्होंने एक अनूठी सोच को बढ़ावा दिया, जिसके तहत प्रत्येक इंसान को अपना मार्ग खुद ही ढूंढना है। उनके अंतिम शब्द “अत्त दीपो भव” (अपना प्रकाश स्वयं बनो) इसी सत्य की ओर इशारा करते हैं। अपने अनुयायियों को खुद के प्रभाव से मुक्त करने के लिए पूरी ईमानदारी से उन्होंने प्रयास किए। कहा जा सकता है कि हालांकि बुद्ध के शिष्य थे, उनके विहार में लोग उनकी देशना के लिए एकत्र होते थे पर उन्होंने अंधभक्ति को कभी बढ़ावा नहीं दिया। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है उनका यह वक्तव्य, “मेरी बातें चांद की तरफ इशारा करने वाली ऊंगली के समान है। इस ऊंगली को चांद न समझ लेना।”

धर्म के मामले में भक्त यही गलती करते आये हैं; अंधभक्ति, व्यक्ति पूजा, गुरु के प्रति मूढ़तापूर्ण श्रद्धा और गुरु द्वारा शिष्यों का शोषण इसका परिणाम हैं।

पहले साम्यवादी थे बुद्ध

बुद्ध करुणा का पर्याय रहे हैं। बचपन में ही एक घायल हंस को लेकर गौतम शुद्धोधन के दरबार में पहुंचे थे और करुणा को जीवन का सबसे आवश्यक गुण बताया था। अंगुलिमाल जैसे क्रूर अपराधी का ह्रदय परिवर्तन कर उन्होंने फिर से हिंसा की तुलना में करुणा और प्रेम के महत्व को स्थापित किया। बुद्ध होने के बाद उन्होंने जिस ‘धम्म’ का प्रचार किया, करुणा उसका विशिष्ट उपादान थी। बुद्ध संसार के पहले साम्यवादी भी थे। उनकी दृष्टि बस इंसानी समाज की विसंगतियों तक सीमित नहीं थी। पूरी सृष्टि पर पशु-पक्षियों और पर्यावरण की रक्षा की भी गहरी फिक्र थी उन्हें। बगैर तानाशाही के, पूरे लोकतांत्रिक तरीकों के साथ, “मैं तुमसे अधिक जानता हूं के भाव से मुक्त, बुद्ध का अहिंसक, करुणावान साम्यवाद सही अर्थ में इंसानी समाज की रुग्णता का इलाज है।”

पश्चिम में बुद्ध की लोकप्रियता का एक कारण है उनका तर्कसंगत होना। बुद्ध किसी काल्पनिक स्वर्ग और मृत्यु के बाद जीवन की चर्चा नहीं करते थे। मृत्यु के उपरांत जीवन की संभावना, आत्मा की अनश्वरता, ईश्वर के अस्तित्व वगैरह से संबधित सोलह प्रश्नों के उत्तर में बुद्ध मौन रहे थे। इन प्रश्नों के उत्तर में उन्होंने यही कहा था कि उनका संबंध केवल दुःख, उसके कारण का पता लगाने और उसकी समाप्ति का उपाय ढूढने से है। उन्होंने अपनी अंतर्द्रिष्टियां साझा करने के लिए तर्कों का सहारा लिया, न कि आस्था का।

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