हमारी अपनी शाम का रंग

  • पंकज शुक्‍ला
  • सभी फोटो: गिरीश शर्मा

गुलजार ने लिखा है और जगजीत ने गाया है, शाम से आंख में नमी सी है, आज फिर आप की कमी सी है…।

सोचता हूं, यह न लिखा होता गुलजार ने तब भी शाम तो होती ही थी। महसूस भी किया ही जाता होगा कि फिर आपकी कमी सी है। जैसे गुलजार ने शब्‍द दिए वैसे ही कवियों, शायरों ने हमारी शाम को अपने लफ्ज दिए हैं। ये शब्‍द हमारे अहसासों से भीगे हुए हैं। ऐसा ही तो होता है, जब हम आसमान में जी भर देखते हैं तो कई मनमोहनी तस्‍वीरें उभरती-मिटती हैं। लगता है एक कैमरा हो और हम कैद कर रख लें उस अनुपम दृश्‍य को। ऐसे ही भावों के बीच किसी की खींची कोई फोटो सामने से गुजरती है तो यूं लगता है यह तो वही दृश्‍य है जिसे हमने देखा उस दिन, उस शाम, उस जगह।

हम सबकी एक शाम है। एक शाम खुशियों वाली। एक शाम बोझिल सी। एक शाम जिसमें समंदर किनारे गुब्‍बारे उड़ते रहे। एक शाम जब हाथ पकड़े दूर तक चलते रहे। एक शाम जिसमें उम्‍मीदें हजार थीं। एक शाम जब कदम निराश थे। मुलाकातों और ठहाकों वाली शाम। उदास मन की बिखरी सी शाम। एक शाम घर ले जाने वाली। एक शाम वापसी की पैकिंग वाली। गोधूली बेला वाली शाम। रोशनियों की लड़ियों वाली शाम। मैदान में बाल को पैरों से ढेलती शाम। उल्‍लास से गपशप मारते पार्क में गुजरी शाम। यह उसी हमारी अपनी शाम का रंग है। हमारी यादों वाली शाम। हमारे अहसासों वाली शाम।  शब्‍दों और तस्‍वीरों का यह रंग हमें खुद से, अपनी यादों से जोड़ता है।

शाम बेच दी है… केदार नाथ सिंह

शाम बेच दी है
भाई, शाम बेच दी है
मैंने शाम बेच दी है!

वो मिट्टी के दिन, वो घरौंदों की शाम,
वो तन-मन में बिजली की कौंधों की शाम,
मदरसों की छुट्टी, वो छंदों की शाम,
वो घर भर में गोरस की गंधों की शाम
वो दिनभर का पढना, वो भूलों की शाम,
वो वन-वन के बांसों-बबूलों की शाम,
वो बंसी, वो डोंगी, वो घाटों की शाम,
वो बांहों में नील आसमानों की शाम,
वो वक्ष तोड-तोड उठे गानों की शाम,
वो लुकना, वो छिपना, वो चोरी की शाम,
वो ढेरों दुआएं, वो लोरी की शाम,
वो बरगद पे बादल की पांतों की शाम
वो चौखट, वो चूल्हे से बातों की शाम,
वो पहलू में किस्सों की थापों की शाम,
वो सपनों के घोडे, वो टापों की शाम,
वो नए-नए सपनों की शाम बेच दी है,
भाई, शाम बेच दी है, मैंने शाम बेच दी है।

यह डूबी-डूबी सांझ, उदासी का आलम… सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

यह डूबी-डूबी सांझ, उदासी का आलम
मैं बहुत अनमनी, चले नहीं जाना बालम।
ड्योढी पर पहले दीप जलाने दो मुझको
तुलसी जी की आरती सजाने दो मुझको
मंदिर के घंटे, शंख और घड़ियाल बजे
पूजा की सांझ-संझौती गाने दो मुझको
उगने तो दो पहले उत्तर में ध्रुवतारा
पथ के पीपल पर कर आने दो उजियारा
पगडंडी पर जल-फूल-दीप धर आने दो
चरणामृत जाकर ठाकुर जी का लाने दो
यह डूबी-डूबी सांझ, उदासी का आलम
मैं बहुत अनमनी, चले नहीं जाना बालम
यह काली-काली रात, बेबसी का आलम
मैं डरी-डरी सी, चले नहीं जाना बालम
बेले की पहले ये कलियां खिल जाने दो
कल का उत्तर पहले इन से मिल जाने दो
तुम क्या जानो यह किन प्रश्नों की गांठ पड़ी
रजनीगंधा से ज्वार-सुरभि को आने दो
इस नीम ओट से ऊपर उठने दो चंदा
घर के आंगन में तनिक रोशनी आने दो
कर लेने दो तुम मुझको बंद कपाट जरा
कमरे के दीपक को पहले सो जाने दो
यह काली-काली रात, बेबसी का आलम
मैं डरी-डरी सी, चले नहीं जाना बालम
यह ठंडी-ठंडी रात, उनींदा सा आलम
मैं नींद भरी सी, चले नहीं जाना बालम
चुप रहो जरा सपना पूरा हो जाने दो
घर की मैना को ज़रा प्रभाती गाने दो
खामोश धरा, आकाश, दिशायें सोयीं हैं
तुम क्या जानो क्या सोच रात भर रोयीं हैं
ये फूल सेज के चरणों पर धर देने दो
मुझको आंचल में हरसिंगार भर लेने दो
मिटने दो आंखों के आगे का अंधियारा
पथ पर पूरा-पूरा प्रकाश हो लेने दो
यह ठंडी-ठंडी रात, उनींदा सा आलम
मैं नींद भरी सी, चले नहीं जाना बालम।

एक पीली शाम … शमशेर बहादुर सिंह

एक पीली शाम
पतझर का जरा अटका हुआ पत्ता
शांत
मेरी भावनाओं में तुम्हारा मुखकमल
कृश म्लान हारा-सा
(कि मैं हूं वह
मौन दर्पण में तुम्हारे कहीं?)
वासना डूबी
शिथिल पल में
स्नेह काजल में
लिए अद्भुत रूप-कोमलता
अब गिरा अब गिरा वह अटका हुआ आंसू
सांध्य तारक-सा
अतल में।

मुझे लुभाती है सांझ… कुंवर रवींद्र

मुझे लुभाती है सांझ
जो तब्दील होते हुए अंधेरे में
एक नई सुबह
लेकर आती है
गहन अंधेरे के बाद
सुबह का उजाला
स्फूर्ति देता है
मगर
रात का अंधेरा देता है सुकून
अपने आप में खोए रहने का मज़ा
कुछ और होता है
मुझे लुभाती है सांझ
अंधेरे में तब्दील होते हुए।

शायरों की जुबानी

न उदास हो न मलाल कर किसी बात का न ख़याल कर
कई साल ब’अद मिले हैं हम तेरे नाम आज की शाम है।  

  • बशीर बद्र

तुम परिंदों से ज़ियादा तो नहीं हो आज़ाद
शाम होने को है अब घर की तरफ़ लौट चलो।  

  • इरफ़ान सिद्दीक़ी

उस की आंखों में उतर जाने को जी चाहता है
शाम होती है तो घर जाने को जी चाहता है।

  • कफ़ील आज़र अमरोहवी

वो न आएगा हमें मालूम था इस शाम भी
इंतज़ार उस का मगर कुछ सोच कर करते रहे।  

  • परवीन शाकिर

तुम्हारे शहर का मौसम बड़ा सुहाना लगे
मैं एक शाम चुरा लूं अगर बुरा न लगे।  

  • क़ैसर-उल जाफ़री

2 thoughts on “हमारी अपनी शाम का रंग

  1. बहुत ही सुंदर लिखा है आपने
    एक शाम जब हाथ पकड़े दूर तक चलते रहे। एक शाम जिसमें उम्‍मीदें हजार थीं। एक शाम जब कदम निराश थे। मुलाकातों और ठहाकों वाली शाम…..
    वाह

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