वृक्षों सी हम लड़कियां

प्रीति राघव, स्‍तंभकार

फोटो: बंसीलाल परमार

सरकारी बंगले से अपने खुद के घर तक का सफर अम्मा (दादी)की जिद और मेहनत पर टिका एक रोचक किस्से की पृष्ठभूमि पर लहलहाता हुआ खड़ा है, किसी दिन अवश्य सुनाऊंगी। जब छोटी थी तब हमारे घर में किराये से एक परिवार रहा करता था। दादा, बेटा-बहू, दो पोते। बहू बहुत ही कमेरू थी। काम निपटाकर छत पर बैठतीं बाल सुखाने तो मुंह खुला रह जाता हम सबका। चिट्टे दूध रंग पर जॉ लाइन के उभार से खिली बत्तीसी और कमर से नीचे तक घुंघराले काले केश। हम सब मानो इंतज़ार करते उनके बाल सुखाने का। सितारा थीं वो हमारे घर का…नाम था ‘तारा’, हमारी तारा आंटी।

ससुर की सेवा करती फिर भी वो कुडकुडाते रहते। यही दु:ख बड़ा था तारा का। उस पर उनके पतिदेव की चुप्पी, दब्बू स्वभाव उन्हें निचोड़ता रहता। अंकल को हम बच्चे ‘पप्पू चाचा’ संबोधन से पुकारते थे। पप्पू चाचा की बस स्टैंड के ऐन सामने मौके पर पानी, तम्बाकू, सिगरेट-बीड़ी की दुकान थी। ईश्वर की कृपा से चलती भी खूब थी। जब भी चाचा और उनके पिताजी दुकान पर होते, तब वो समय तारा आंटी के दु:ख बांटने का रहता। हमारी अम्मा के पास आकर बैठ जाती चाय का कप लेकर फिर ससुर पुराण शुरू। चाय के साथ में नमकीन के नाम पर ख़ारे आंसू रहते।

अम्मा, सुबुकती आंटी से उनकी बात सुन रही होतीं और सांत्वना भी देती जाती थीं। वे बीच-बीच में आंटी को कुछ मठरी,गांठिये भी खाने को देतीं। सास के बिना खूसट ससुर को झेलना बहुत बड़ी चुनौती थी उनके लिए, मगर ना जाने कितनी नायाब मिट्टी की बनी थी वो कि गुस्से के बाद भी अपने पिता से कम ख्याल नहीं रखती थी उनका। तारा आंटी थी बहुत सुघड़। पापड़, अचार, लड्डू, पेठा, गुझिया क्या कुछ नहीं बनाना आता था उन्हें।

वह दुकान के लिए पान-पराग, गुलकंद तक घर पर ही बना लेती थी। वे जब भी मां और दादी से बात करतीं तब “हमारा जैपुर” (जयपुर) शब्द ना जाने कितनी दफा इस्तेमाल करतीं। समय बीतने पर धीरे-धीरे समझ आया कि जयपुर उनका पीहर था। एक बार वो वहां से मेरे लिये पोंहचू, कंठी भी लाई थीं। ऑफ व्हाइट मोतियों वाले बडे ही सुंदर पोंहचू।

जबकि तारा आंटी की ससुराल धौलपुर थी तो कितनी ही बार उनसे सुनती हमारा धोलपुर ये, हमारा धोलपुर वो।

तब हंसती थी उनकी बातों पर लेकिन आज सोचती हूं उस भावना को, जब खुद कभी बोल पड़ती हूं- “हमारा मुरैना, मेरा भोपाल, हमारा इंदौर, मेरा ग्वालियर, हमारा मध्यप्रदेश, हमारा गुड़गांव, हमारी दिल्ली”…ना जाने कितने शहर, कितने प्रदेश।

हम लड़कियां (बचपन से बुढापे तक वाली लड़कियां) भी ना पीछे छूटे शहरों, घरों को कुछ ऐसे अपनाती हैं…जैसे नाल वहीं गढ़ी हो हमारी। पीछे छूटे तमाम सालों में उन शहरों के हाल कितने भी बद से बदतर हो गए हों या फिर इक्का-दुक्का के सुधरे भी हों तो भी मदन के गुलाबजामुन,चीनी हलवाई की मक्खनी गुझिया, घेवर, शिवहरे और कमल की गज़क, बरैया की नमकीन, कैलास की डिब्बेवाली बरफ, न्यू मार्केट की, मिलन की नमकीन, नेचुरल आइसक्रीम,शरीफा शेक, राजबाड़ा पर वैष्णव थाली, कचौड़ी, उसलपाव, मक्खनवड़ा, साबूदाना खिचड़ी, पोहा, महाराज बाड़े पर चाट, गोलगप्पे और ना जाने क्या – क्या…। कपड़ा, गहने, मंदिर-मस्जिद,गली-कूचे, स्कूल-कॉलेज सब तो हम लड़कियों का पेटेंट होता है। निरी कोमलता से हम लड़कियां अपनी दबंगई साबित करती चलती हैं शहरों-शहरों।

दीवारें टूटी हुई, दरारों वाली, पलस्तर चटका कर गारा झाड़ती होंगी पर वो स्कूल, कॉलेज दुनिया का बेस्ट वाला ही दिखता है हमें। बिना मेंटिनेंस वाला वाचनालय भी दुनिया की सबसे शांत जगह प्रतीत होता है। किस गली में किस दुकान पर क्या मिलेगा यह नक्शा भी हमारे पास सुरक्षित रहता है। जहां गूगल बाबा का नक्शा फेल हो जाता है तब हम लड़कियां अपने वाले को खोलती हैं।

हम लड़कियों के दिल में बसे शहर, गांव, कस्बे, मोहल्ले सब पर मानो हमारा एकाधिकार हो जाता है। कितना अज़ीब है ना ये! लेकिन बेहद प्यारा भी कि हम लाख बुराई जानते हों हमारी दिल की नगरिया की लेकिन कोई दूजा बोल भर दे तो मार राशन-पानी लेकर चढ़ पड़ते हैं। चण्डी सवार हो गई हो जैसे! एक बुराई भी दूसरे के मुख से सुन तक नहीं सकते।

हम लड़कियां डरती हैं अजनबी शहरों, जगहों, लोगों के बीच होने पर लेकिन अपने दिल के शहर में हम दशक बाद भी जायें, भले इन्फ्रास्ट्रक्चर कितना भी बदल गया हो तब भी वही एक ठसक, एक रौब सवार हो ही जाता है कि हम डरते नहीं हैं वहां क्योंकि हम मानते हैं किहम महफ़ूज़ हैं अंधेरों में,गलियों, मोहल्लों में भी।

सच में अजीब ही होती हैं हम बचपन से लेकर बुढ़ापे को लांघती लड़कियां! हम जिसे भी अपनाते हैं, वो हमारे दिलों में आजीवन हमारा होकर ही रहता है। भले असलियत में कितनी भी दूर,पीछे क्यों न छूट गया हो। हम एकल इकाई सी दिखती तो हैं मगर अनगिनत मोहल्ले-गलियां, गांव, कस्बे, घर, शहर और रिश्ते बसे होते हैं भीतर हमारे, अपने और मुंहबोले सब।

हम लड़कियां समेटे चलती हैं अपने अलिन्द और निलय में संस्कृतियों, संस्कारों, मील के पत्थरों, वंदनवारों को, देहरियों, आंगनों को, यादों की टकसालों को।  

हम लड़कियां रत्ती-रत्ती अपना बीज-मन छोड़ जाती हैं हर मिट्टी में और जीवनपर्यंत वहां से उगी जड़ें हममें आकर मिलती रहती हैं। नहीं बहने देती हैं हम लड़कियां, हर वो मिट्टी जिसमें हमारा अंश मिला हो। वृक्ष बन हम रोक लेती हैं हर तरह के मृदा अपरदन को। हम लड़कियां अपने आंचल की छाया के आश्रय में छुपा लेती हैं, छूटे, बिखरते, टूटते, संवरते, पोषित होते हर रिश्ते की पौध। हम हरियाले वृक्षों सी लड़कियां अपनी मिट्टी को गहराई तक पकड़े रहती हैं अपनी मूलों से बांधकर सदा ही।

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