कला का समाज: तब हम एक-दूसरे के सबसे करीब होते थे!

आज विश्‍व कला दिवस है। असल में आज इटली के जाने माने कलाकार लियोनार्डो दा विंची की जयंती है और उन्‍हीं के सम्‍मान में यह दिवस मनाया जाता है। इस वर्ष 2024 में विश्व कला दिवस की थीम है: “A Garden of Expression: Cultivating Community Through Art.” यह थीम कला के उस मूल और नैसर्गिंक उद्देश्‍य का प्रतिनिधित्‍व करती है जिसका लक्ष्‍य एक सशक्‍त समुदाय का निर्माण है। कला के इस मंतव्‍य पर दो अनुभव।

श्‍वेता मिश्र

तस्वीर बनाना भी एक ध्यान है! एक ईमानदारी है…एक ठहराव है

अपने अंतर्मन में वापसी है…। आप बंधे होते हो अपनी तस्वीर से… ठीक जैसे कोई कवि अपनी अधुरी कविता से…। दुनिया कुछ भी करे समय कुछ भी हो पर कला का नशा आपको इन सबसे अलग रखता हैं…। बात तब की है जब बेटा काव्य एलकेजी में पहुंचा था। उन्हें पढ़ने में कोई खास दिलचस्पी नहीं थी…हां, रगों से थी।

यह कोई खास बात नहीं है, उनकी मां भी ऐसी ही थी…। बहरहाल, हम काव्य से जुगलबंदी करते हुए उन्हीं के पेंसिल रंगो से उनकी ड्राइंग बुक में कुछ तस्वीरें बनाते रहे।

मैंने अकसर महसूस किया था कि दिन के जिन पलों में हम दोनों टीम की तरह काम करते थे… हम एक दूसरे के सबसे करीब होते थे!

उनका उत्साह देखने वाला होता है..वो हमें बस रंग, रबड़ ओर पेंसिल पकड़ाने में मदद करते थे। जब कभी अपनी समझ से रंग भी सुझाते थे। उनकी बात रखने के लिए मैं तस्वीर कुछ हद तक उनके हिसाब से बना भी देती थी। कुछ एक जगह वे रंग भी भर दिया करते थे। उन्हें होशियारी से रंग भरने और तस्वीर खराब ना करने की हिदायत बार-बार दी जाती। वे कुछ हद तक ध्यान भी रखते थे। इन सबमें उनका आत्मविश्वास देखने वाला होता था!

तस्वीर खत्म होते ही वो सबके पास ले जाकर कहते…मां और मैंने बनाई…!

रंग ना जाने कब मेरे हाथों से छूट गए और हाथों में पेन आ गया… पेंटिंग की जगह हस्ताक्षरों ने ले ली…। दिन भर काम के दौरान हस्ताक्षरों से थके हाथों में जब काव्य के रंग ओर उसके छोटे-छोटे हाथ आते थे…बेरंग दुनिया में फिर से रंग भरने लगे थे। मेरा बचपन जो कहीं उदास रूठा बैठा था, लौट आता था। हम पन्ने रंगीन करते थे और बच्चों की तरह खुश रहते थे। जीवन की भी तो यही कला है…जो है उसमें बच्चे की तरह खुश हो जाइये और जो चाहिए उसके पीछे पागलों कि तरह पड जाइये।

इसे कहते हैं कला … वरिष्‍ठ कवि निरंजन श्रोत्रिय का अनुभव

उज्जैन का किस्‍सा है। अपने कैशोर्य में ग्राण्ड होटल में एक कार्यक्रम हुआ था जिसमें कथाकार कमलेश्वर ने एक कहानी सुनाई थी…कला को लेकर। वह कहानी ऐसी कि कभी जेहन से उतर ही नहीं पाई। आप भी पढ़िए।

एक सर्कस था (इन दिनों विलुप्तप्राय:) जिसमें एक कलाकार चाकू से निशाना साधता था। निशानेबाज की आंखों पर पट्टी बंधी होती और वह सामने एक घूमते हुए बोर्ड पर टंगी महिला पर चाकू फेंकता…नुकीले चाकू जो जाहिर है उस महिला के इर्द-गिर्द ही लगते, महिला उन चाकुओं से हमेशा अछूती रहती।

सोचिए, इतनी दूरी से घूमते हुए चक्के पर टंगी स्त्री को बगैर छुए निशाना लगाना, वह भी आंखों पर पट्टी बांधकर। अद्भुत तमाशा होता यह। दर्शक सांस रोक कर देखते फिर बेतहाशा तालियां बजाते।

चक्के पर घूमती वह स्त्री दरअसल उस निशानेबाज की पत्नी थी।

एक दिन निशानेबाज़ को पता चला कि उसकी पत्नी के सर्कस के मैनेजर से अवैध संबंध हैं। कलाकार बेहद दु:खी, व्यथित और क्षुब्ध हुआ। वह टूट चुका था। उसने सोचा कि अगले तमाशे में वह एक चाकू सीधे पत्नी के सीने पर मारेगा, दिल पर…ताकि खेल ख़त्म! कह देगा कि इंसानी भूल थी, हो गई। अंततः उसने यही ठान लिया।

अगले शो में जब चक्का घूम रहा था तो निशानेबाज चाकू फेंकता रहा…फेंकता रहा…निशाना स्त्री के अगल-बगल लगता रहा..तालियां पिटती रहीं।

फिर वह क्षण आया जिसका निशानेबाज को इंतजार था…उसने अंतिम चाकू अपनी पत्नी के सीने को लक्ष्य कर पूरी ताकत से फेंक दिया …वहीं जहां दिल होता है। कलाकार ने सोचा कि काम हो गया लेकिन सर्कस में जोरदार तालियां बज रही थीं। वह हतप्रभ हुआ। जब उसने अपनी आंखों से पट्टी हटाकर देखा तो पाया कि हृदय को लक्ष्य कर चलाया चाकू भी स्त्री के बगल में ही लगा था।

वह क्या चीज होती है जो एक अभ्यस्त हाथ को अपने लक्ष्य से जरा भी विचलित होने से रोक लेती है।

वह कला होती है। कभी भी अपना धर्म न छोड़ने वाली!

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